शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

तकाज़ा



मेरे हर आज से करते हो

गुज़रे कल का तकाज़ा
मेरे होश से मांगते हो

मेरे जुनून का हिसाब

अपनी हस्ती को मिटा कर भी

कर न सके दरिया-ऐ-इन्तहा पार

मेरे न होने से पूछते हो
मेरी होनी का हिसाब

कौन कहता है कि वक़्त

घावों को भरता नहीं
गर नए नश्तर न खरोंचे
पुराने ज़ख्मों को बार बार

बुझी आग में सुलगती रहे
चिंगारी जब तक

न छेड़ो भड़क सकती है

आग यक ब यक
जिस गरीब ने लुटा दी उम्र
जिगर के टुकड़े बटोरने में
तोहमत है आज उसी पर
खज़ाना-ऐ-उल्फत लुटाने का
ज़माने के जब कर्जदार ही नहीं

क्या चुकाना, क्या निबाहना
जो पाया वही दिया
बेवफाई
बेइंसाफी