मेरे हर आज से करते हो
गुज़रे कल का तकाज़ा
मेरे होश से मांगते हो
मेरे जुनून का हिसाब
अपनी हस्ती को मिटा कर भी
कर न सके दरिया-ऐ-इन्तहा पार
मेरे न होने से पूछते हो
मेरी होनी का हिसाब
कौन कहता है कि वक़्त
घावों को भरता नहीं
गर नए नश्तर न खरोंचे
पुराने ज़ख्मों को बार बार
बुझी आग में सुलगती रहे
चिंगारी जब तक
न छेड़ो भड़क सकती है
आग यक ब यक
जिस गरीब ने लुटा दी उम्र
जिगर के टुकड़े बटोरने में
तोहमत है आज उसी पर
खज़ाना-ऐ-उल्फत लुटाने का
ज़माने के जब कर्जदार ही नहीं
क्या चुकाना, क्या निबाहना
जो पाया वही दिया
बेवफाई
बेइंसाफी