शनिवार, 22 अगस्त 2009

कंकाल

मांस का टुकडा समझ
नोच नोच कर खाया तुमने
अब तो कुछ बचा नहीं
फिर क्यों नहीं छोड़ते उसे
कंकाल से क्या भूख
मरती है किसी की
वो भी जब हर आघात से
आत्मा चीखती है उसकी
शायद तुम ही नहीं सुन पाते
काम ने बधिर जो कर दिया तुम्हे
मगर उसकी आँखें तो
देखी होंगी तुमने
भयभीत, आतंकित
खूंटे से बंधी
न आँगन को लाँघ सकी
न बाघ से बच सकी

शुक्रवार, 21 अगस्त 2009

वास्ता

तेरे शेहेर में रहते हैं हम आज भी
मगर तुझे याद ही नहीं
तेरी गलियों से आतीं हैं राहें मेरे दर तक
मगर तुझे याद ही नहीं
मेरे कूंचे से गुज़र जाता है तू
मगर बिन सलाम किए
तेरे पाये-चाप को पहचानती हूँ आज भी
मगर तुझे याद ही नहीं
खुदा का वास्ता ले कर
तरके-मुहब्बत की थी हमने मगर
दिल कम्बख्क्त तेरा है आज भी
मगर तुझे याद ही नहीं
किसी गैर के पहलु में
तेरा सर क्यूँ कर हो बेवफा
मैं भी तोह हूँ दामन बिछाए
मगर तुझे याद ही नहीं
सावन फिर से लौटा है मेरे आँगन में
मगर मैं कहाँ और तू कहाँ
भीगी हवाओं से भड़क उठती है आग
मगर तुझे याद ही नहीं
मिल जाता है जब, गैरों की मौजूदगी में
गुज़र जाता है कतरा कर
हर सुबह -शाम गुज़ारी थी हमने साथ साथ
मगर तुझे याद ही नहीं
वक्त जो गुज़ारे  थे हमने
क्या उनका ज़रा भी तकाज़ा नहीं
सजा राखी है मैंनेसेज आज भी
मगर तुझे याद ही नहीं
तेरी फितरत ही थी आशिकाना, तू करता क्या
मगर मैंने तोह ईबादत  की थी
तुझे याद ही नहीं
किसी अपने से पूछ लेता मेरे हमसफ़र
मेरे घर का पता
तेरे नाम से जानते हैं मुझे आज भी
सिर्फ़ तुझे याद नहीं