बुधवार, 18 अप्रैल 2012

बंदिशें

काश की मुहब्बत
में बंदिशें न होती
ज़माने की दीवारें न होती
उंच नीच की दरारें न होतीं
काश की हर रिश्ते को
नाम की ज़रुरत न होती
दो इंसानों के बीच
मुहब्बत ही काफी होती
नफरत भरी दुनिया में
ग़र मिल जाती
दो घड़ी को जन्नत
झुलसी हुई ज़िन्दगी को
सावन की बौछार मिल जाती
कट जाती उम्र
इक लम्हे के सहारे
वक़्त के फफोलों को
ठंडक मिल जाती

सलाखें

हर सुबह के साथ
जाग उठता है
सीने में उम्मीद का
सोया पंछी
पंख फड फाड़ता है
गर्दन उठता है
उड़ान भरना चाहता है
मगर दरवाजें हैं बंद
पिंजरे की सलाखें तंग
हाथ बढ़ा कर भी
आसमान छू सकता नहीं
गहरी सांस भर कर भी
हवा सूँघ सकता  नहीं
सन्देश जब भेजा ही नहीं
मुझ तक पंहुंचता कैसे
रिहाई का पैगाम
कोई आता ही नहीं
जीवन रेखा की लम्बाई देख  
शिथिल हो उठता है दिल
इतनी गिनती आती नहीं
समां जाए तमाम दिन
अधूरी प्यास लिए
छट पटाता, फड फाड़ता
ये बेनाम पंछी यूँही
दम तोड़ देगा एक दिन

मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

माँ


माँ आज तू सोती है और हम जागते हैं
कभी हम सोते थे और तू जगती थी
हलके से पीठ थप थपाती थी
और मीठी लोरी सुनाती थी
आज हम कितनी आवाजें देते हैं
और तुझे ज़ोर ज़ोर से हिलाते हैं
मगर तू पलक तक झपकाती नहीं
तेरे सिरहाने आस लगाये तकते हैं
अब भी तुझ में जीवन हैं यही ढूँडते रहते हैं
शायद तू टूटे दांतों से फिर मुस्कुरा देगी 
और डांट के हमे फिर से गले लगा लेगी
मगर माँ तू तो शिथिल, निशब्द सोती है
किसी और ही दुनिया में लगती है
माँ तुझे यूँ असमर्थ देखा जाता नहीं
तू लाचार हो जाए यह स्वीकार नहीं
आज तू अपने से करवट तक ले सकती नहीं
और देह की  क्रियाओं को रोक सकती नहीं
तेरे पीठ के घाव हमारे सीने पे चुभते हैं
क्यों निर्मम है तेरा ईश्वर खुद से पूछते हैं
माँ क्यों ये सब होता है
जो पेड़ हमे साया देता है
वही उजाड़ हो जाता है
जो उँगलियाँ चलना सिखाती हैं
वही हाँथ छुड़ा लेती हैं
जो आँचल सब से बचाता है
वही सिमट लुप्त हो जाता है