मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

माँ


माँ आज तू सोती है और हम जागते हैं
कभी हम सोते थे और तू जगती थी
हलके से पीठ थप थपाती थी
और मीठी लोरी सुनाती थी
आज हम कितनी आवाजें देते हैं
और तुझे ज़ोर ज़ोर से हिलाते हैं
मगर तू पलक तक झपकाती नहीं
तेरे सिरहाने आस लगाये तकते हैं
अब भी तुझ में जीवन हैं यही ढूँडते रहते हैं
शायद तू टूटे दांतों से फिर मुस्कुरा देगी 
और डांट के हमे फिर से गले लगा लेगी
मगर माँ तू तो शिथिल, निशब्द सोती है
किसी और ही दुनिया में लगती है
माँ तुझे यूँ असमर्थ देखा जाता नहीं
तू लाचार हो जाए यह स्वीकार नहीं
आज तू अपने से करवट तक ले सकती नहीं
और देह की  क्रियाओं को रोक सकती नहीं
तेरे पीठ के घाव हमारे सीने पे चुभते हैं
क्यों निर्मम है तेरा ईश्वर खुद से पूछते हैं
माँ क्यों ये सब होता है
जो पेड़ हमे साया देता है
वही उजाड़ हो जाता है
जो उँगलियाँ चलना सिखाती हैं
वही हाँथ छुड़ा लेती हैं
जो आँचल सब से बचाता है
वही सिमट लुप्त हो जाता है

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