बुधवार, 30 सितंबर 2009

बेडियाँ

निकले थे जहाँ से
उन्हीं वीरानियों में लौट आए
खोजते हुए आबादी
उन्हीं उदासियों में लौट आए
उठाये थे कदम
मंजिलों की तरफ़
हाय गुमशुदा हम
उसी दोराहे पे लौट आए
दोस्तों की तालाश में
मयखाने पहुँच गए थे
काँधा ढूँड ते
तेरे दर पे लौट आए
आसमान छूने को
पंख पसारे थे हमने
दामन में कुछ खार
कुछ ज़र्रे बटोर लाये
बेडियों को झटक कर
बढाये थे कदम हमने
दर्द ने नाता न तोडा
सलाखों में लौट आए

सोमवार, 21 सितंबर 2009

सन्नाटे

ज़िन्दगी के सन्नाटे गूंजते हैं
रात की अँधेरी सड़कों से
गश्त लगाती हुई लाठियों के साथ
लावारिस कुत्तों के भौंकने के साथ
बस्तियों से थकी साँसों की बू आती है
गलियों से तनहा रूहों की चीखों के साथ
शहर सो गया दिन के झग-झोर के बाद
मुझे नींद आती नहीं क्यों करवटों के बाद
ज़मानें भर की बेवफ़ाइयां 
एक एक याद आतीं रहीं
हजारों जानने वालों में
एक दोस्त याद आता नहीं
आधी उम्र जो गुज़र चुकी है अपनी
एवाज़ में दिखने को कुछ नहीं
क्या यही है ज़िन्दगी अपनी
यही हस्ती, यही बलंदी अपनी
सुबह से शाम का हो जाना
मेरी उम्र का तमाम हो जाना

शनिवार, 22 अगस्त 2009

कंकाल

मांस का टुकडा समझ
नोच नोच कर खाया तुमने
अब तो कुछ बचा नहीं
फिर क्यों नहीं छोड़ते उसे
कंकाल से क्या भूख
मरती है किसी की
वो भी जब हर आघात से
आत्मा चीखती है उसकी
शायद तुम ही नहीं सुन पाते
काम ने बधिर जो कर दिया तुम्हे
मगर उसकी आँखें तो
देखी होंगी तुमने
भयभीत, आतंकित
खूंटे से बंधी
न आँगन को लाँघ सकी
न बाघ से बच सकी

शुक्रवार, 21 अगस्त 2009

वास्ता

तेरे शेहेर में रहते हैं हम आज भी
मगर तुझे याद ही नहीं
तेरी गलियों से आतीं हैं राहें मेरे दर तक
मगर तुझे याद ही नहीं
मेरे कूंचे से गुज़र जाता है तू
मगर बिन सलाम किए
तेरे पाये-चाप को पहचानती हूँ आज भी
मगर तुझे याद ही नहीं
खुदा का वास्ता ले कर
तरके-मुहब्बत की थी हमने मगर
दिल कम्बख्क्त तेरा है आज भी
मगर तुझे याद ही नहीं
किसी गैर के पहलु में
तेरा सर क्यूँ कर हो बेवफा
मैं भी तोह हूँ दामन बिछाए
मगर तुझे याद ही नहीं
सावन फिर से लौटा है मेरे आँगन में
मगर मैं कहाँ और तू कहाँ
भीगी हवाओं से भड़क उठती है आग
मगर तुझे याद ही नहीं
मिल जाता है जब, गैरों की मौजूदगी में
गुज़र जाता है कतरा कर
हर सुबह -शाम गुज़ारी थी हमने साथ साथ
मगर तुझे याद ही नहीं
वक्त जो गुज़ारे  थे हमने
क्या उनका ज़रा भी तकाज़ा नहीं
सजा राखी है मैंनेसेज आज भी
मगर तुझे याद ही नहीं
तेरी फितरत ही थी आशिकाना, तू करता क्या
मगर मैंने तोह ईबादत  की थी
तुझे याद ही नहीं
किसी अपने से पूछ लेता मेरे हमसफ़र
मेरे घर का पता
तेरे नाम से जानते हैं मुझे आज भी
सिर्फ़ तुझे याद नहीं

बुधवार, 29 अप्रैल 2009

किस्सा

कहते हो किस्सा ख़त्म हो चला
हमारे बीच अब कुछ न रहा
तेरी जुबां का कहना है ये
मगर नज़रे बयान कुछ और
तू मुझसे महरूम हुआ नही कभी
अपनी मुहब्बत पर भरोसा है अभी
मेरे करीब आने से भी डरता है तू
बेकरारी नज़रों में छुपाये फिरता है तू
अपने जज्बों पे यकीं नही तुझको
मैं दिल की धड़कन न सुन लूँ डरता है तू
मेरी साँसों के चलने से लगती है आग तुझे
मैं कैसे मान लूँ ये किस्सा ख़त्म हो चला है
शराफत तेरी बुजदिली का सिला तो नहीं
मुझसे न सही ख़ुद से सच बोल ले कभी
ये बार-बार उखड के वापस आना तेरा
तेरी बेचैनी का अफसाना है कह रहा
मुहब्बत को मेहेरबानी का पैराहन न दीजिये
अब भी हम तेरे कुछ लगते हैं मान लीजिये

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

आग

आज फिर  ज़हन  में भड़की है आग
आज फिर मुद्दत पे मचला है दिल
याद के लम्हों ने ज़रूरत को हवा दी है
ज़माने की भीड़ में तेरी ही कमी है
बहुत टाल चुके ख्वाहिशों को हम
तेरी तम्मना, तेरी जुस्तजू, तेरा ही दौर
जो नसीम की तरह लिपटे हो दामन से
कैसे न सताए महके-बदन तेरी हमें
लबों को  छूते हो तबस्सुम की तरह
रगों में समां रहे हो साँसों की तरह
मगर अजनबी हो, गैर हो, अपने नहीं
सामने हो, रूबरू हो, और पहचान नहीं
जो गुज़रती है हम पे, हम ही जानते हैं
रकीब के हो साथ और हमसे मिलते हो
नज़र मिलती नहीं इन मुलाकातों में जो
कोफ्त होता है तुझे, हैरानी, पशेमानी नहीं
एक बार चले आओ हर रिश्ते को छोड़ कर
ये ही समझ लो की है जान पे बन आई
जो दिया न  तूने कंध, जनाज़ा न उठेगा मेरा
ज़िन्दगी में न सही, मौत में ही मिल ले गले
जो रूह भी प्यासी गई ए बेवफा मेरे
लग सकती है तुझे भी आग, जाने पर मेरे