सोमवार, 21 सितंबर 2009

सन्नाटे

ज़िन्दगी के सन्नाटे गूंजते हैं
रात की अँधेरी सड़कों से
गश्त लगाती हुई लाठियों के साथ
लावारिस कुत्तों के भौंकने के साथ
बस्तियों से थकी साँसों की बू आती है
गलियों से तनहा रूहों की चीखों के साथ
शहर सो गया दिन के झग-झोर के बाद
मुझे नींद आती नहीं क्यों करवटों के बाद
ज़मानें भर की बेवफ़ाइयां 
एक एक याद आतीं रहीं
हजारों जानने वालों में
एक दोस्त याद आता नहीं
आधी उम्र जो गुज़र चुकी है अपनी
एवाज़ में दिखने को कुछ नहीं
क्या यही है ज़िन्दगी अपनी
यही हस्ती, यही बलंदी अपनी
सुबह से शाम का हो जाना
मेरी उम्र का तमाम हो जाना

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