शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

तकाज़ा



मेरे हर आज से करते हो

गुज़रे कल का तकाज़ा
मेरे होश से मांगते हो

मेरे जुनून का हिसाब

अपनी हस्ती को मिटा कर भी

कर न सके दरिया-ऐ-इन्तहा पार

मेरे न होने से पूछते हो
मेरी होनी का हिसाब

कौन कहता है कि वक़्त

घावों को भरता नहीं
गर नए नश्तर न खरोंचे
पुराने ज़ख्मों को बार बार

बुझी आग में सुलगती रहे
चिंगारी जब तक

न छेड़ो भड़क सकती है

आग यक ब यक
जिस गरीब ने लुटा दी उम्र
जिगर के टुकड़े बटोरने में
तोहमत है आज उसी पर
खज़ाना-ऐ-उल्फत लुटाने का
ज़माने के जब कर्जदार ही नहीं

क्या चुकाना, क्या निबाहना
जो पाया वही दिया
बेवफाई
बेइंसाफी

शनिवार, 22 अक्तूबर 2011

थक गया दिल तुम्हारा



धड़कते धड़कते, आखिर थक ही गया दिल तुम्हारा

चलते चलते, आखिर थम ही गया दिल तुम्हारा

एक पुर्जे की तरह रुकना ही था उसे

रफ़्तार से बहुत तेज़ जो चल रहा था

ये मैं नहीं , वो मशीन बता रही थी

जो तुम्हारे सिरहाने, खामोश लगी थी

हम टकटकी बांधे, उसी को देखते थे

तुम अभी हो, जान कर सुकून पाते थे

मगर जिस घडी दिल ने तुम्हारे जवाब दिया

लकीरें सपाट हो गयीं , चेहरा शांत हो गया

शिकन माथे से गायब हो गयी

तुम्हे जैसे निजात मिल गयी

क्या हश्र किया था तुम्हारा, दवा के ठेकेदारों ने

और हमारी तुम्हे जिंदा रखने की कोशिषों ने

सुईयों से तुम्हारी हर नस खुबो रखी थी

और खुराक के नामपे ट्यूब चढ़ा रखी थी

तुम्हारी बदहवासी की हालत में

जो जी चाह किया बेरेह्मों ने

और हम, सिर्फ हाथ मलते रहे

तुम्हारी एक झलक पाने के लिए

दरबानो से मिन्नतें करते रहे

मगर क्या पहरा था उन दरवाज़ों पे

भीक मांगके भी उन्हें लांघ न सके

आखिर मर्ज़ ने ज़िन्दगी को हरा दिया

और तुम ने जहां को अलविदा कह दिया

सोमवार, 17 अक्तूबर 2011

रोज़ मरती हूँ मैं


कितनी जल्दी मिटा दी ज़माने ने तुम्हारी हस्ती

अब तुम्हे पूछता हुआ कोई आता नहीं कभी

जबकि ये घर आज भी वहीँ उसी मुकाम पे है

न कोई ख़त आता है तुम्हारे लिए , न कोई बिल

तुम्हारे फ़ोन की घंटी भी अब बजती नहीं कभी

वोह भी खामोश हो गया, तुम हुए जिस घड़ी

सब अकाउंट बंद हो चुके हैं तुम्हारे नाम के

और उधारी के सब कार्ड भी ब्लाक

तुम्हारे इस दुनिया में न होने का सबूत

लोग मेरी आँखों से लेते क्यों नहीं

सिर्फ सरकारी दस्तावेज़ ही क्यों मांगते है

तुम्हारे न होने  का तकाज़ा मुझसे बार बार करते हैं

वोह जो तुम्हारी ज़िन्दगी के एवाज़ में चेक भेजते हैं

क्यों तुम्हारी रुक्सती का नज़ारा

हर रोज़ दिखाते हैं वोह मुझे

जब मुर्दों को जिया सकते नहीं

जिन्दों  को जीने देते क्यों नहीं