रविवार, 30 दिसंबर 2012

nirbhaya/ निर्भया

मैं भी तुम्हारी तरह
जीना चाहती थी
आसमानों को
छूना  चाहती थी
अपने सपनों को
साकार करना चाहती थी
तुम्हारी ही तरह
खुली हवा में
सांस लेना चाहती थी
तुम्हारी ही तरह
जब जी में आये
इन गलियों में
घूमना चाहती थी
सुना था मैंने
यह हक़ हर बेटी को
संविधान ने दिया है
मुझे क्या पता था
यह सब कागज़ी बातें हैं
भारत माता की बेटियों को
किसी चीज़ का अधिकार नहीं
कोख से मरण शैया  तक
सिर्फ जीवित रहने के लिए
लड़ना पड़ता है

सोमवार, 9 जुलाई 2012

दस्ते खंजर

कुछ बेवजह थी हिज्र की रात
इसके आने का अंदेशा न था
कुछ इस कदर था यकीं ज़ालिम पर
हर अंदाज़ कातिलाना, जाना नहीं मगर
थे खूने जिगर फिर भी, पुरसिशे हुज़ूर में
दिया गया न बयान, दस्ते खंजर का हमसे
थी बेवफाई बेनकाब उन आँखों में
और किया वफ़ा का बे इन्तहा बखान
ज़माने से लड़ते रहे जिस शख्स के लिए
वो ही नावाकिफ रहा मक्सूदे जंग से मेरे
सर लीं तमाम रुसवाइयां बेरहम बेवजह
नामुराद वो ही अजनबी रहा होने से मेरे
चिलमन से निकलते तो देखते
उस तरफ कुछ भी न था

सैलाब

बरसों से दबी आग भड़क गयी है आज
तुम आये ज़िन्दगी की ज़रूरतें बढ़ गईं
न आते, तो ही अछा होता मेरे लिए
ज़िन्दगी गुज़ार लेते कफन ओढ़े हुए 
खुश्क ज़मीन पर सावन
बिन बरसे गुज़र जाए जैसे
प्यार की दो बूँदें  पिला
प्यास जगा गए वैसे
हयाते सहरा से निकल
आये थे बा मशक्कत
मगर नज़र तरस रही थी
तेरी टूक निगाह के वास्ते
तुम बिजली की तरह
कौंध गए सियाह रात में
सुलगती रही आग
जिगर के आशियाने में
बहाना क्यूँ बन गए
मेरी बर्बाद मुहब्बत के
यूँ भी क्या कम ग़म थे
दामन में हमारे

सोमवार, 4 जून 2012

कंगाल

इस अँधेरे को चिरुं  कैसे
इस ख़ामोशी को काटूँ कैसे
इतना दर्द समाये समता नहीं
इतनी पीड़ा आवाज़ निकलती नहीं
सूने  घर की चार दिवारी में
कलेजा फटता है किसी ग़रीब का
ज़िन्दगी के कारोबार में
हम ही पीछे रह गए क्यों
दुनियादारी निबाही इतनी
कि कंगाल हुई हस्ती अपनी
जिस आंगन में गुज़रते थे
बहुतों के सुबह-शाम
झांकता नहीं कोई अब
भंडार ख़ाली हुआ जिस दाम 
कदमों की आहट
भूले से भी आती नहीं अब
कह कहे गूंजते थे हर पल जहाँ
सब निकल पड़े मंजिलों पे अपनी
हम ही क्यों न ढूंढ सके राह अपनी
नोन-तेल-लकड़ी के जंजाल में
क्यों रह गयीं आर्जूंएं  दबीं
नाकामयाबी झटक न सके
किसी ग़रीब की मुहब्बत की तरह
बस येही अँधेरा, येही ख़ामोशी
लूट ले गए रौशनी सभी

शनिवार, 12 मई 2012

औरत

ईश्वर में समा जाऊं 
मैं मैं न रहूँ 
ये शरीर न रहे 
ये अस्तित्व न रहे 
मेरा कुछ भी न रहे 
ताकि तुम मुझे 
छू न सको 
मेरे स्वाभिमान को 
कुरेद न सको
मेरी आत्मा का 
बलात्कार न हो 
तुम जो हक़ 
समझते हो अपना 
मेरे व्यक्तित्व को 
सम्पति अपनी 
मैं हूँ ही नहीं 
न तुम्हारी
न किसी की 


बुधवार, 18 अप्रैल 2012

बंदिशें

काश की मुहब्बत
में बंदिशें न होती
ज़माने की दीवारें न होती
उंच नीच की दरारें न होतीं
काश की हर रिश्ते को
नाम की ज़रुरत न होती
दो इंसानों के बीच
मुहब्बत ही काफी होती
नफरत भरी दुनिया में
ग़र मिल जाती
दो घड़ी को जन्नत
झुलसी हुई ज़िन्दगी को
सावन की बौछार मिल जाती
कट जाती उम्र
इक लम्हे के सहारे
वक़्त के फफोलों को
ठंडक मिल जाती

सलाखें

हर सुबह के साथ
जाग उठता है
सीने में उम्मीद का
सोया पंछी
पंख फड फाड़ता है
गर्दन उठता है
उड़ान भरना चाहता है
मगर दरवाजें हैं बंद
पिंजरे की सलाखें तंग
हाथ बढ़ा कर भी
आसमान छू सकता नहीं
गहरी सांस भर कर भी
हवा सूँघ सकता  नहीं
सन्देश जब भेजा ही नहीं
मुझ तक पंहुंचता कैसे
रिहाई का पैगाम
कोई आता ही नहीं
जीवन रेखा की लम्बाई देख  
शिथिल हो उठता है दिल
इतनी गिनती आती नहीं
समां जाए तमाम दिन
अधूरी प्यास लिए
छट पटाता, फड फाड़ता
ये बेनाम पंछी यूँही
दम तोड़ देगा एक दिन

मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

माँ


माँ आज तू सोती है और हम जागते हैं
कभी हम सोते थे और तू जगती थी
हलके से पीठ थप थपाती थी
और मीठी लोरी सुनाती थी
आज हम कितनी आवाजें देते हैं
और तुझे ज़ोर ज़ोर से हिलाते हैं
मगर तू पलक तक झपकाती नहीं
तेरे सिरहाने आस लगाये तकते हैं
अब भी तुझ में जीवन हैं यही ढूँडते रहते हैं
शायद तू टूटे दांतों से फिर मुस्कुरा देगी 
और डांट के हमे फिर से गले लगा लेगी
मगर माँ तू तो शिथिल, निशब्द सोती है
किसी और ही दुनिया में लगती है
माँ तुझे यूँ असमर्थ देखा जाता नहीं
तू लाचार हो जाए यह स्वीकार नहीं
आज तू अपने से करवट तक ले सकती नहीं
और देह की  क्रियाओं को रोक सकती नहीं
तेरे पीठ के घाव हमारे सीने पे चुभते हैं
क्यों निर्मम है तेरा ईश्वर खुद से पूछते हैं
माँ क्यों ये सब होता है
जो पेड़ हमे साया देता है
वही उजाड़ हो जाता है
जो उँगलियाँ चलना सिखाती हैं
वही हाँथ छुड़ा लेती हैं
जो आँचल सब से बचाता है
वही सिमट लुप्त हो जाता है