सोमवार, 9 जुलाई 2012

सैलाब

बरसों से दबी आग भड़क गयी है आज
तुम आये ज़िन्दगी की ज़रूरतें बढ़ गईं
न आते, तो ही अछा होता मेरे लिए
ज़िन्दगी गुज़ार लेते कफन ओढ़े हुए 
खुश्क ज़मीन पर सावन
बिन बरसे गुज़र जाए जैसे
प्यार की दो बूँदें  पिला
प्यास जगा गए वैसे
हयाते सहरा से निकल
आये थे बा मशक्कत
मगर नज़र तरस रही थी
तेरी टूक निगाह के वास्ते
तुम बिजली की तरह
कौंध गए सियाह रात में
सुलगती रही आग
जिगर के आशियाने में
बहाना क्यूँ बन गए
मेरी बर्बाद मुहब्बत के
यूँ भी क्या कम ग़म थे
दामन में हमारे

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