कुछ बेवजह थी हिज्र की रात
इसके आने का अंदेशा न था
कुछ इस कदर था यकीं ज़ालिम पर
हर अंदाज़ कातिलाना, जाना नहीं मगर
थे खूने जिगर फिर भी, पुरसिशे हुज़ूर में
दिया गया न बयान, दस्ते खंजर का हमसे
थी बेवफाई बेनकाब उन आँखों में
और किया वफ़ा का बे इन्तहा बखान
ज़माने से लड़ते रहे जिस शख्स के लिए
वो ही नावाकिफ रहा मक्सूदे जंग से मेरे
सर लीं तमाम रुसवाइयां बेरहम बेवजह
नामुराद वो ही अजनबी रहा होने से मेरे
चिलमन से निकलते तो देखते
उस तरफ कुछ भी न था
इसके आने का अंदेशा न था
कुछ इस कदर था यकीं ज़ालिम पर
हर अंदाज़ कातिलाना, जाना नहीं मगर
थे खूने जिगर फिर भी, पुरसिशे हुज़ूर में
दिया गया न बयान, दस्ते खंजर का हमसे
थी बेवफाई बेनकाब उन आँखों में
और किया वफ़ा का बे इन्तहा बखान
ज़माने से लड़ते रहे जिस शख्स के लिए
वो ही नावाकिफ रहा मक्सूदे जंग से मेरे
सर लीं तमाम रुसवाइयां बेरहम बेवजह
नामुराद वो ही अजनबी रहा होने से मेरे
चिलमन से निकलते तो देखते
उस तरफ कुछ भी न था
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