सोमवार, 9 जुलाई 2012

दस्ते खंजर

कुछ बेवजह थी हिज्र की रात
इसके आने का अंदेशा न था
कुछ इस कदर था यकीं ज़ालिम पर
हर अंदाज़ कातिलाना, जाना नहीं मगर
थे खूने जिगर फिर भी, पुरसिशे हुज़ूर में
दिया गया न बयान, दस्ते खंजर का हमसे
थी बेवफाई बेनकाब उन आँखों में
और किया वफ़ा का बे इन्तहा बखान
ज़माने से लड़ते रहे जिस शख्स के लिए
वो ही नावाकिफ रहा मक्सूदे जंग से मेरे
सर लीं तमाम रुसवाइयां बेरहम बेवजह
नामुराद वो ही अजनबी रहा होने से मेरे
चिलमन से निकलते तो देखते
उस तरफ कुछ भी न था

सैलाब

बरसों से दबी आग भड़क गयी है आज
तुम आये ज़िन्दगी की ज़रूरतें बढ़ गईं
न आते, तो ही अछा होता मेरे लिए
ज़िन्दगी गुज़ार लेते कफन ओढ़े हुए 
खुश्क ज़मीन पर सावन
बिन बरसे गुज़र जाए जैसे
प्यार की दो बूँदें  पिला
प्यास जगा गए वैसे
हयाते सहरा से निकल
आये थे बा मशक्कत
मगर नज़र तरस रही थी
तेरी टूक निगाह के वास्ते
तुम बिजली की तरह
कौंध गए सियाह रात में
सुलगती रही आग
जिगर के आशियाने में
बहाना क्यूँ बन गए
मेरी बर्बाद मुहब्बत के
यूँ भी क्या कम ग़म थे
दामन में हमारे