सोमवार, 4 जून 2012

कंगाल

इस अँधेरे को चिरुं  कैसे
इस ख़ामोशी को काटूँ कैसे
इतना दर्द समाये समता नहीं
इतनी पीड़ा आवाज़ निकलती नहीं
सूने  घर की चार दिवारी में
कलेजा फटता है किसी ग़रीब का
ज़िन्दगी के कारोबार में
हम ही पीछे रह गए क्यों
दुनियादारी निबाही इतनी
कि कंगाल हुई हस्ती अपनी
जिस आंगन में गुज़रते थे
बहुतों के सुबह-शाम
झांकता नहीं कोई अब
भंडार ख़ाली हुआ जिस दाम 
कदमों की आहट
भूले से भी आती नहीं अब
कह कहे गूंजते थे हर पल जहाँ
सब निकल पड़े मंजिलों पे अपनी
हम ही क्यों न ढूंढ सके राह अपनी
नोन-तेल-लकड़ी के जंजाल में
क्यों रह गयीं आर्जूंएं  दबीं
नाकामयाबी झटक न सके
किसी ग़रीब की मुहब्बत की तरह
बस येही अँधेरा, येही ख़ामोशी
लूट ले गए रौशनी सभी

कोई टिप्पणी नहीं: