बुधवार, 18 अप्रैल 2012

सलाखें

हर सुबह के साथ
जाग उठता है
सीने में उम्मीद का
सोया पंछी
पंख फड फाड़ता है
गर्दन उठता है
उड़ान भरना चाहता है
मगर दरवाजें हैं बंद
पिंजरे की सलाखें तंग
हाथ बढ़ा कर भी
आसमान छू सकता नहीं
गहरी सांस भर कर भी
हवा सूँघ सकता  नहीं
सन्देश जब भेजा ही नहीं
मुझ तक पंहुंचता कैसे
रिहाई का पैगाम
कोई आता ही नहीं
जीवन रेखा की लम्बाई देख  
शिथिल हो उठता है दिल
इतनी गिनती आती नहीं
समां जाए तमाम दिन
अधूरी प्यास लिए
छट पटाता, फड फाड़ता
ये बेनाम पंछी यूँही
दम तोड़ देगा एक दिन

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