बुधवार, 29 अप्रैल 2009

किस्सा

कहते हो किस्सा ख़त्म हो चला
हमारे बीच अब कुछ न रहा
तेरी जुबां का कहना है ये
मगर नज़रे बयान कुछ और
तू मुझसे महरूम हुआ नही कभी
अपनी मुहब्बत पर भरोसा है अभी
मेरे करीब आने से भी डरता है तू
बेकरारी नज़रों में छुपाये फिरता है तू
अपने जज्बों पे यकीं नही तुझको
मैं दिल की धड़कन न सुन लूँ डरता है तू
मेरी साँसों के चलने से लगती है आग तुझे
मैं कैसे मान लूँ ये किस्सा ख़त्म हो चला है
शराफत तेरी बुजदिली का सिला तो नहीं
मुझसे न सही ख़ुद से सच बोल ले कभी
ये बार-बार उखड के वापस आना तेरा
तेरी बेचैनी का अफसाना है कह रहा
मुहब्बत को मेहेरबानी का पैराहन न दीजिये
अब भी हम तेरे कुछ लगते हैं मान लीजिये

1 टिप्पणी:

'MP' ने कहा…

You have a very keen eye on human relationships!

Enjoyed!

God bless!!