शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

आग

आज फिर  ज़हन  में भड़की है आग
आज फिर मुद्दत पे मचला है दिल
याद के लम्हों ने ज़रूरत को हवा दी है
ज़माने की भीड़ में तेरी ही कमी है
बहुत टाल चुके ख्वाहिशों को हम
तेरी तम्मना, तेरी जुस्तजू, तेरा ही दौर
जो नसीम की तरह लिपटे हो दामन से
कैसे न सताए महके-बदन तेरी हमें
लबों को  छूते हो तबस्सुम की तरह
रगों में समां रहे हो साँसों की तरह
मगर अजनबी हो, गैर हो, अपने नहीं
सामने हो, रूबरू हो, और पहचान नहीं
जो गुज़रती है हम पे, हम ही जानते हैं
रकीब के हो साथ और हमसे मिलते हो
नज़र मिलती नहीं इन मुलाकातों में जो
कोफ्त होता है तुझे, हैरानी, पशेमानी नहीं
एक बार चले आओ हर रिश्ते को छोड़ कर
ये ही समझ लो की है जान पे बन आई
जो दिया न  तूने कंध, जनाज़ा न उठेगा मेरा
ज़िन्दगी में न सही, मौत में ही मिल ले गले
जो रूह भी प्यासी गई ए बेवफा मेरे
लग सकती है तुझे भी आग, जाने पर मेरे

1 टिप्पणी:

Postwar ने कहा…

Been a while since I read a Hindi poem, but I think this one is really good, aunty.

Why don't you post some of your English stuff too?

And I would really appreciate it, if you told me what you think of my poems at- peaceonday2.blogspot.com

Keep Writing!