शनिवार, 10 अप्रैल 2010

आँगन

पंख मरोड़ के
तोड़ दिया
और चुनौती दी
उड़ सको
तो उड़ जाओ
बहुत ऊँची उड़ाने
भरता था तू
बहुत बलंदियों का
था गुमान
आज चार कदम भी
चल सकता नहीं
मेरी बैसाखी के बिना
फड फडाता
छट पटाता
कितना बेढब लगता है
ये पखेरू
सय्याद कितनी मुगालता
है तुझे अपनी कैद का
हाय कमबख्त तूने
आसमान देखा ही नहीं
ज़मीन पे था
तो क्या गम था
पींग न भर सका
तो इतना मलाल क्या
बेजुबान से कहता है
ज़रा उड़ के तो दिखा
इस आँगन के बाहर

1 टिप्पणी:

संजय भास्‍कर ने कहा…

हर शब्‍द में गहराई, बहुत ही बेहतरीन प्रस्‍तुति ।