सोमवार, 12 अप्रैल 2010

जन्नत

सिलवटें पड़ चुकीं हैं बिछौने पर मेरे
शिकन से भर गयी है चादर मेरी

निशान हैं ये मेरी बेचैनी के
तुम्हारे आने के नहीं

काश के यूँ ही होता, वो
रौंदना मुहब्बत की आगोश में

वो साँसों की नमी
वो महके हुए बदन

मेरी मुहब्बत में तेरा खो जाना
वो सिहर जाना, वो सिमट जाना

वो गर्मिए दौरा
वो मौसम के गुनाह

सनम, फिर से हों दोबारा
वो हर बहकी हुई खता

वो थक के सो जाना
तेरे बाँहों के दायरे में

सब कुछ जो तुझे दे दिया
वही यार थी मेरी खुदगर्जी

वो गिरफ्तारी थी
मेरे जनत के दिन

1 टिप्पणी:

'MP' ने कहा…

Wonderful poetry, Preeti! Enjoyed it so much!!

Keep up the good work!